सत्ता का मोह छोड़कर धामी ने तोड़ी अंधविश्वास की दीवार

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देहरादून। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अभिशप्त कहे जाने वाले सरकारी बंगले को लेकर नई लकीर खींच दी है। धामी ने सत्ता से किसी तरह का मोह दिखाकर अंधविश्वास की दीवार गिराने का काम किया। मुख्यमंत्री ने ऐसे समय में सरकारी बंगले को अपना आशियाना बनाया है, जब उन्हें अपनी टीम के साथ छह माह बाद चुनावी समर में जाना है। कई मुख्यमंत्रियों ने सत्ता जाने के भय से बंगले की तरफ पैर कर सोना मुनासिब नहीं समझा। यह देखना दिलचस्प रहेगा कि यह फैसला धामी के लिए सत्ता का अमृत या फिर सत्ता से बेदखली का विष लेकर आता है।

राजधानी के कैंट रोड पर बने मुख्यमंत्री आवास को लेकर जितने मुंह उतनी की कहानी है। अंधविश्वास से जुड़ी इन कहानियों के पक्ष में उदाहरण भी कम नहीं है। भाजपा और कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों के लिए यह सरकारी बंगला किसी अनसुलझी पहेली से कम नहीं है। कई मुख्यमंत्रियों ने सरकारी बंगले से दूरी बनाने में ही अपनी भलाई समझा। उत्तराखंड में नारायण दत्त तिवारी को ही सबसे सफल मुख्यमंत्री माना गया है। तिवारी के हाथों में जब जब तक सत्ता रही, तब तक मुख्यमंत्री का यह सरकारी बंगला बनकर तैयार नहीं हो पाया था। इसके बाद जितने भी मुख्यमंत्रियों ने सरकारी बंगले को आशियाना बनाया, उनके साथ अनिष्ट की ढेर सारे किस्से जुडे है। कहा जाता है कि सरकारी बंगले में रहने वाला मुख्यमंत्री लंबी पारी नहीं खेल पाया है। सिलसिलेवार बात करे तो बीसी खंडूड़ी, डॉक्टर रमेश पोखरियाल, विजय बहुगुणा और त्रिवेंद्र सिंह रावत इसी बंगले में रहे, लेकिन उन्हें दुर्भाग्य से समय से पहले सत्ता से हाथ धोना पड़ा। उत्तराखंड का बड़ा चेहरा माने जाने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत मुख्यमंत्री रहते हुए सरकारी बंगले की तरफ नहीं गए। सबसे कम समय मुख्यमंत्री रहे तीरथ सिंह रावत भी सरकारी बंगले में नहीं आए। सिर्फ कैम्प कार्यालय के रूप में उसका इस्तेमाल किया है, लेकिन वो भी अनिष्ट के चक्रव्यूह से खुद को नहीं बचा पाए।


मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के कदम रखते ही सरकारी बंगले से जुड़ी कहानियां एक बार फिर सत्ता से जुड़े लोगों और सियासत में दिलचस्पी रखने वालों की जुबां पर आ गई। मुख्यमंत्री धामी ने भी त्रिवेंद्र रावत की तरह सरकारी बंगले की नेगेटिविटी दूर कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। ज्योतिष और वास्तु के लिहाज से जो हो सकता था, उसे पूरा करा लिया है। वैसे भी मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की पारी की तस्वीर पहले से साफ है। उनके सामने छह बाद बाद चुनावी नैय्या पार करने की सबसे बड़ी चुनोती है। चुनावी समर का फैसला ही धामी का आगामी भविष्य तय करेगा। सियासत में उन्हें इसका कितना लाभ और कितना नुकसान होगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है, फिलहाल मुख्यमंत्री धामी ने तमाम अंधविश्वासों को साइड लाइन कर सरकारी बंगले को अपना लिया है।

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